चंबल के बादल

चंबल तेरे आसपास ये फैले हुए बादल,
साथ हरियाली के बिछे हुए हैं आँचल,
देखती हूँ दूर से इन आँचल में सोने के सपने,
जहां साथ हो मेरे सभी अपने,
इन हवाओं से उडते हुए पहुँचते होंगे मेरे अरमान,
बस इतना बतला देना की दोगी मुझे जगह ख़ास?

दीवारे तोड़ती हूँ

काम करती हूँ, सिर्फ दीवारे तोड़ती हूँ,
कभी राम तो कभी रहीम को पूजती हूँ।
कभी महावीर कभी यीशु पूजती हूँ,
कोई कितनी दीवारे उठाए
पर मैं दीवारे तोड़ती हूँ।
चार धर्म, चार दिशाए
मैं दिशाओ को बीच में बांधकर
दिशाए तोड़ती हूँ।
बांध बांध कर मैं सबको एक करती हूँ।
मैं जो सोचती हूँ, उस शायद युद्ध हो जाए,
परन्तु मैं मन में हज़ारो दीवारे तोड़ती हूँ
मेरे मन में कोई युद्ध नहीं
लेकिन मैं दीवारे तोड़ती हूँ।

कुछ मिले, कुछ बिछड़े

कुछ मिले, कुछ बिछड़े
कुछ याद रहे, कुछ भूल गए
कुछ खो गए, कुछ वापस आये
कुछ जम गए, कुछ जमाये गए
कुछ कहते गए, कुछ खामोश रहे
कुछ अच्छे लगे, कुछ बुरे भी लगे
कुछ थक गए, कुछ चले गए
कुछ रूठ गए, कुछ मनाने गए
कुछ चलते रहे, कुछ बैठ गए
कुछ जागते रहे, कुछ सो गए
जो सो गए, वो खो गए
जो वापस आए, वो जम गए
जो जम गए , वो कहते गए
जो कहते गए, वह बुरे लगे
जो खामोश रहे , वह अच्छे लगे
जो अच्छे लगे, वह थक गए
जो बुरे लगे, वह चले गए

जो चले गए , वह अमर तो नहीं रहे।

काला भौरा

एक काले भौरे को मैं लगातार दो दिन से रोशनदान से बाहर निकलने की कोशिश करती देख रही थी। आज मुझसे रहा नहीं गया और मैंने रोशनदान की एक छोटी खिड़की को खोल कर उसका मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन वह अपनी धुन का पक्का मेरे द्वारा खोले गए रास्ते को देख ही नहीं पाया और पुनः अपने निर्थक अथक परिश्रम में लिप्त हो गया। मुझे यह देखकर बहुत दुःख हुआ। मेरी हज़ार उसे निकालने की कोशिशो के बावजूद उसकी स्तिथि में मुझे कोई विशेष परिवर्तन नहीं लगा। उसके एक भौरे होने पर बहुत दया आई,मुझे लगा काश ये मानव होता तो तुरंत अपने मार्ग को प्रशस्त कर लेता। किन्तु तभी मुझे आत्मबोध हुआ नहीं मानव भी इसी तरह अपनी आँखों पर काली पट्टी बांधे रखता है। वह भी हमेशा अपने निराशाजनक परिश्रम को अंधकार की सौगात मानकर जीवन यापन करता है, और ईश्वर को कोसना नहीं भूलता। अब मुझे लगा की मानव होकर भी एक तुच्छ  समझे जाने वाले भौरे और मानव में कोई अंतर नहीं।

एक अनजान सड़क पर कुछ लोग चिल्ला रहे है

एक अनजान सड़क पर कुछ लोग चिल्ला रहे है।
दुनिया को कोसते अपने आप पर इतरा रहे है।
कहते दुनिया में लोग कैसे आ रहे है ,
खुद पर ध्यान दे,दुनिया को भुला रहे है।
क्या है , अच्छा क्या बुरा न जान रहे है।
बस अपने में मस्त गुनगुना रहे है।
हर दूसरे दिन हड़कम्प मचा रहे है।
अपने आप को गर्त में डाले जा रहे है।
यह सब सुन उस सड़क के कान फटते जा रहे है।
उसने सोचा , न जाने क्यों ये बड़बड़ा रहे है।
जानते नहीं ये क्या बोले जा रहे है।
स्वयं की कहानी को अन्य माध्यम से बता रहे है।
एक अनजान सड़क पर लोग चिल्ला रहे है।

आज मैंने कान्हा की मूर्ति को रोते देखा

आज मैंने कान्हा की मूर्ति को रोते देखा
क्या समय आया की मैंने जगपालन को रोते देखा
उस को रोते देखा जिसने जग को चुप कराया था
मैंने पुछा क्यों रोते हो तुम तो जग के पालक हो
बोले अपने अश्रु पोछते, कैसे बतलाऊ मैं अपना हाल
इस जग के लोगो ने कर दिया मुझे बेहाल
चाहे दुःख हो या फिर सुख कोसते
रहते मुझे हर समय यह जगहर्ता
और अपने कर्मो पर सोचकर ही
मुझे लगता, की मैं जो करता गलत ही करता
और उसी बात पर …

एक पर्वत

एक पर्वत उस पर दिशाए चार
चार दिशाओ में चार पवन
चार पवन में कई लहरें
लहरों में चढाव,लहरों में उतार
लहरों के उत्तर चढाव में रास्ते
रास्तों पर कई यादे , कई अतीत
यादो में कुछ लोग
लोगो में चेहरा
चेहरों में इंसानियत और
इंसानियत में बनावट
बनावट में बेईमानी
और उसी बेईमानी में सर्वस्व नष्ट।

रामेश्वर जी

आज फिर आसमान एकदम साफ़ था। और हर बार की तरह मौसम ने मौसम विभाग द्वारा की गई भविष्यवाणियों को झुठला दिया। खैर इन सब बातो का रामेश्वर जी के परिवार से कोई सम्बन्ध नहीं था। उनकी तो सुबह सूर्य की पहली किरण और शाम की सूर्य की अस्त वाली किरण भी एक ही थी। उनकी ज़िन्दगी एक जैसी थी। सुबह दौड़ा भागी में कार्यालय जाना, पत्नी का बच्चो को विद्यालय के लिए तैयार करना बस इसी तरह उनकी सुबह चालू होती थी। परन्तु प्रतिदिन शाम का नज़ारा कुछ और ही था, वो यु की शर्मा जी के पैसे तो अपने उच्चासीन पदाधिकारी रोज़ की फरमाइशों को पूरा करने के कारन पानी की तरह बह जाते थे और इसलिए प्रतिदिन शाम को उनके घर कलह होता। पत्नी और बच्चे खासा रोष प्रकट करते और अपनी अपनी राय रखते। आज महीने का प्रथम दिवस है, आज तो शर्मा जी की तनख्वाह मिलने वाली है। सभी को उनके आने का बेसब्री से इंतज़ार था और हो भी क्यों न क्यूंकि दूधवाले का बिल, बिजली टेलीफोन का बिल तथा बच्चो की फीस भरने का हिसाब जो लग चूका था।

rameshwarji

परन्तु उनके आते ही नज़ारा बदल गया। पत्नी ने ध्यान भंग किया, अरे आधी तनख्वाह तो गोल है। शर्मा जी ने धीमे स्वर में कहा – आज बॉस के यहाँ कुछ विशेष अतिथि आने वाले है, उनके खाने पीने के इंतज़ाम में आधे खर्च हो गए। पत्नी ने चिल्लाते हुए कहा – “अरे वाह  ! ये कहा का तरीका है। मेहनत हम करे और खाए वो, हमारी आधी तनख्वाह तो वैसे भी उनकी खुशामदी में चली जाती है। और पूर्ती के लिए हर बार उधार से काम चलना पड़ता है। अब ऐसा कब तक चलता रहेगा,पांच पांच बच्चो की परवरिश सर पर है, कल इनकी फीस नहीं भरी तो स्कूल से निकाल देंगे। क्या तुम्हारे साहब तब लाकर देंगे पैसे।” शर्मा जी ने उन्हें समझाया की यदि ऐसा नहीं करते तो उनके उच्चाधिकारी उनका ट्रांसफर करवा देंगे और अब समझ लो यही एक नियम की तरह जीवन भर चलता रहेगा। छोटी बेटी कड़ी सब सुन रही थी। उसकी समझ में बस इतना आया की बड़े अधिकारियो को किसी भी चीज़ के पैसे नहीं लगते, वे तो सब चीज़ो को आदेश देते ही पा लेते है।

अचानक न जाने क्यों आज की सुबह कुछ नया पैगाम लेकर आयी, क्यूंकि आज शर्मा जी का प्रमोशन लेटर आया था। पता लगते ही सरे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी। तभी शर्मा जी की छोटी बच्ची दौड़ कर आई और खुश होती हुई पूछ बैठी , क्या आज के बाद हमें किसी चीज़ को खरीदने के लिए रुपये नहीं लगेंगे ??