एक काले भौरे को मैं लगातार दो दिन से रोशनदान से बाहर निकलने की कोशिश करती देख रही थी। आज मुझसे रहा नहीं गया और मैंने रोशनदान की एक छोटी खिड़की को खोल कर उसका मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन वह अपनी धुन का पक्का मेरे द्वारा खोले गए रास्ते को देख ही नहीं पाया और पुनः अपने निर्थक अथक परिश्रम में लिप्त हो गया। मुझे यह देखकर बहुत दुःख हुआ। मेरी हज़ार उसे निकालने की कोशिशो के बावजूद उसकी स्तिथि में मुझे कोई विशेष परिवर्तन नहीं लगा। उसके एक भौरे होने पर बहुत दया आई,मुझे लगा काश ये मानव होता तो तुरंत अपने मार्ग को प्रशस्त कर लेता। किन्तु तभी मुझे आत्मबोध हुआ नहीं मानव भी इसी तरह अपनी आँखों पर काली पट्टी बांधे रखता है। वह भी हमेशा अपने निराशाजनक परिश्रम को अंधकार की सौगात मानकर जीवन यापन करता है, और ईश्वर को कोसना नहीं भूलता। अब मुझे लगा की मानव होकर भी एक तुच्छ समझे जाने वाले भौरे और मानव में कोई अंतर नहीं।